मानव नव रसों की खान है। उसकी सोच से उत्पन्न उसकी प्रतिक्रिया ही यह निर्धारित करती है कि उसका व्यक्तित्व कैसा है ! निश्चय ही मेरी रचनाओं में आपको नवीन एवं पुरातन का समावेश मिलेगा साथ ही क्रान्तिकारी विचारधारा के छींटे भी । धन्यवाद !
।।सधु चन्द्र।।
जलमयी जलधर तू क्यों जलता दावानल तो मैं हूँ जल का धधक-धधक कर जल जाती हूँ सन्तप्त तुझे मैं कर जाती हूँ| ...बहुत खूब। जलना सिर्फ जल जाना नहीं, झुलस कर अगन में दही जाना नहीं। भीगे और जले, जल जाना वही।।।।।।
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteआभार
ReplyDeleteसादर
बहुत खूब
ReplyDeleteआभार माननीय
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (२६-१०-२०२०) को 'मंसूर कबीर सरीखे सब सूली पे चढ़ाए जाते हैं' (चर्चा अंक- ३८६६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
धन्यवाद माननीया
Deleteमेरी इस रचना को'मंसूर कबीर सरीखे सब सूली पे चढ़ाए जाते हैं' (चर्चा अंक- ३८६६) में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार।
जलमयी जलधर तू क्यों जलता
ReplyDeleteदावानल तो मैं हूँ जल का
धधक-धधक कर जल जाती हूँ
सन्तप्त तुझे मैं कर जाती हूँ|
...बहुत खूब। जलना सिर्फ जल जाना नहीं, झुलस कर अगन में दही जाना नहीं। भीगे और जले, जल जाना वही।।।।।।
कृपया अगन में दह जाना पढें....🙂
Deleteधन्यवाद महोदय
ReplyDeleteआभार
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर।
धन्यवाद!!!
Deleteहार्दिक आभार
शब्द संचयन कोई आपसे सीखे
ReplyDeleteवाह
आभार!
ReplyDeleteसादर