जमाना निकल गया
कुछ अपने
पराए बन गए
कुछ पराए
अपने ।
यह वक्त का ही खेल है
कि जिसने
परखना और समझना
सीखा दिया।
परखा तो
कोई
अपना ना दिखा
और...
समझा तो
कोई पराया ना दिखा।
बस ज़िंदगी ने
यही सिखाया है कि
जबरन की डोर
ना बांधे चलो।
कदर ना हो तो चुपचाप
दूरी बना लो
और निकल चलो
अपने मुकाम पर।
।।सधु चन्द्र।।
सुन्दर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक आभार दी।
Deleteसादर।
बहुत खूब
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
Deleteसादर।
बहुत खूब ...
ReplyDeleteअपना पराया शायद मन के अन्दर है ... भाव बदलते ही बदल जाते हैं भाव ...
हार्दिक आभार माननीय।
Deleteसादर।
बेहतरीन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार माननीय।
Deleteसादर।
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteमेरी रचना को चर्चा मंच पर शामिल करने हेतु हार्दिक आभार माननीय।
ReplyDeleteसादर।
हार्दिक आभार ज्योति जी।
ReplyDeleteसादर।
बहुत सार्थक सृजन।
ReplyDeleteस्तरीय का दर्शन
हार्दिक आभार ।
Deleteसादर।
सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक आभार सु-मन जी।
Deleteसादर।
बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार अनीता जी।
Deleteसादर।
प्रशंसनीय
ReplyDeleteहार्दिक आभार माननीय।
Deleteसादर।
अपने जैसा ढूंढते-ढूंढते
ReplyDeleteजमाना निकल गया
कुछ अपने
पराए बन गए
कुछ पराए
अपने ।
वाह!
उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार माननीय।
Deleteसादर।