मैं आग बेचती हूँ
न कि राख बेचती हूँ
यदि राख भी बेचा
तो समझना कि आग है बेचा
बूझे आग में सुलगा हुआ
राख बेचती हूँ
हाँ ! मैं आग बेचती हूँ।
मैं न ही कोई पत्रकार
न ही मिडिया से है साठ-गांठ
आवाम की दबी-कुचली आवाज़
मैं आपको सौपती हूँ।
जहाँ आग तो लगी है
पर राख न दिखा
जो कुछ स्वाहा हुआ
उसपर अख़बार ख़ूब बिका।
पर जो...
अधजला कचरे का अंबार
अब भी था... कोने में
उसे उठाने वाला
सिलसिलेवार ना दिखा।
फ़ायर ब्रिगेड वाले भी आए थे
तप्त-अग्नि को शांत करने
पर... राख के भीतर का उन्हें,
अनबुझा,उद्दीप्त
आग न दिखा ।
पसरा सन्नाटा
यहाँ भी लोलुपों के नाम चढ़ा
सत्ताधारियों एवं
समाज सुधारकों का चिट्ठा
यहाँ ख़ूब बिका।
मुँह दबाकर रो रही थी
अधजली वस्तुएँ
उन्हें सुनने वाला
कोई विश्वविधाता न दिखा।
सुना है!
आजकल
ख़ूब आग लगती है
विमर्शों में।
हाँ विमर्शों में ...
पर, बस विमर्शों में
आग🔥 लगकर क्या होगा ?
आग तो लगनी चाहिए
सबके सीने में
महज़ ...
सीने की आग ही
एक ढर्राए पिरामिड को
भस्म कर
फिर से खड़ा कर सकती है
एक सपनों का महल ।।
क्योंकि... कागजी दस्तावेज एवं वास्तविक इमारत में
सपने और हक़ीक़त सा ही फ़र्क है।
।।सधु।।
चित्र - साभार गूगल
मैं आग बेचती हूँ
ReplyDeleteन कि राख बेचती हूँ
यदि राख भी बेचा
तो समझना कि आग है बेचा
बूझे आग में सुलगा हुआ
राख बेचती हूँ
हाँ ! मैं आग बेचती हूँ।
लाज़वाब ।
हार्दिक आभार महोदय।
Deleteसादर।
आग बेचना सबके बस की बात नहीं।
ReplyDeleteशुभकामनाएं!
मनोबलवर्धन हेतु हार्दिक आभार।
Deleteसादर।
धधकती हुई अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार अमृता जी।
Deleteसादर।
सुन्दर और सार्थक सृजन। सादर बधाई।
ReplyDeleteविश्लेषण हेतु हार्दिक आभार माननीय।
Deleteसादर।