वैर-विकार,अनिष्ट
पर बताओ
कौन है ज्ञानी ?
ऐसा ...
साहसी और बलिष्ठ !
स्वर्णलंका बस
एक के पास
शिवभक्त
शक्ति-अपार
बस इसी का था
उसे अहंकार ।
भले ही कुछ हो
पर ...अहंकार
क्षणभंगुर होता है
मिल मिट्टी में अस्तित्व खोता है
नाश करवाता अपना राज
चाहे
कितनी भी शक्ति हो पास
क्योंकि..
जहाँ हो अति भ्रष्टाचार
वहाँ तो होता ही है संहार ।।
इसलिए
हम फिर से
शून्य में आसन जमाते हैं
अंतर्मन के तिमिर को
कोसों दूर भगाते हैं
पाप का पिंड फोड़
प्रेम का अलख जगाते हैं।।
विजयदशमी की अशेष शुभकामनाएँ
।।सधु चंद्र।।
अहम् और अहंकार को रावण के साथ नए रूप में जोड़ कर एक सार्थक रचना प्रस्तुत करने हेतु साधुवाद आदरणीया सधु जी ....
ReplyDeleteअपनी लेखनी को रुकने न दीजिएगा....बहुत-बहुत शुभकामनाएं
धन्यवाद माननीय
Deleteप्रोत्साहित करने हेतु हार्दिक आभार
हम फिर से
ReplyDeleteशून्य में आसन जमाते हैं
अंतर्मन के तिमिर को
कोसों दूर भगाते हैं
सुन्दर सोच से ओतप्रोत
आभार!
Deleteसादर