हूँ सहनशील पर,
इतना नहीं कि
राह के पाषाण की तरह
कोई ठोकर मार दे...
और,
ढलमलाते
एक कोने से...
दूसरे कोने में जा गिरे...।
है धैर्य बेहद मूल्यों का
पर,
इतना नहीं कि;
समक्षी
अपनी नैतिकता गटक जाए
और ताकते मुंह रह जाएं
चिर -चिरंतर तक।
है प्रवृति खुशमिजाज
सहृदय सी
पर,
इतना नहीं कि;
धृष्टों की धृष्टता पर
झूठी हंसी आए।
मित्रवत् व्यवहार किया जाए ।
दोमुहें सांपो के भीड़ में खड़ी,
लिए कटोरा दूध का
पर खबरदार!!!
अनर्थ को ललकारने से बचना।
हूँ नम्र पर
इतना नहीं कि
नरम समझकर
खीरे- ककरी की तरह
चबा जाओ.....
..........................................
पैर के नीचे से
ज़मीन खीचनें की
औका़त हम रखते हैं।
।।सधु चन्द्र।।
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteहार्दिक आभार विश्वमोहन जी।
Deleteसादर।
नम्र हूँ पर इतनी भी नहीं कि ककड़ी समझकर चबा जाओ ...क्या बात है
ReplyDeleteहार्दिक आभार महोदया ।
ReplyDeleteसादर।
धृष्टों की धृष्टता पर
ReplyDeleteझूठी हंसी आए।
मित्रवत् व्यवहार किया जाए ।
'शठे शाठ्यं समाचरेत'
सुन्दर।
हार्दिक आभार महोदय।
ReplyDeleteसादर।
अच्छी चिंतनशील और प्रेरक रचना। साधुवाद सधु जी।
ReplyDeleteविश्लेषण हेतु हार्दिक आभार महोदय।
Deleteसादर।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना मंगलवार १ दिसंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
Deleteमेरी रचना को पांच लिंकों का आनंद पर...
साझा करने हेतु हार्दिक आभार श्वेता जी
सादर।
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteगुरु नानक देव जयन्ती
और कार्तिक पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
हार्दिक आभार महोदय।
Deleteआपको भी गुरु नानक देव जयन्ती
और कार्तिक पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
सादर।
वाह !बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी ।
Deleteसादर।
तेज तेवर अच्छा लगा
ReplyDeleteधन्यवाद दी
Delete👌👌
ReplyDeleteहार्दिक आभार ।
Deleteसादर।
बहुत बहुत सुन्दर , सराहनीय |
ReplyDeleteहार्दिक आभार ।
Deleteसादर।
जबर्दस्त ! ऐसा ही होना चाहिए।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ।
Deleteसादर।