ये नाज़ुक दौर भी न
नाज़ुक को
फ़ौलाद बना देती है।
शीशे को चट्टान
बना देती है
धरती को
आसमान बना देती है।
भूले को
घर का राह दिखाकर
भटके को
इंसान बना देती है।
ये नाज़ुक दौर भी न
नाज़ुक को
फ़ौलाद बना देती है।
इस जिंदगी की दौड़ में
जीवन का भ्रम मिटा देती है
हैसियत से अधिक
दिखने वाले इंसान को
कर्ज़ में डूबा देती है।
ज़्यादा पश्चिम-पश्चिम
करने वाले का
सूर्य अस्त भी करा देती है।
ये नाज़ुक दौर भी न
नाज़ुक को
फ़ौलाद बना देती है।
।।सधु।।
शीशे को चट्टान
ReplyDeleteबना देती है
धरती को
आसमान बना देती है।
भूले को
घर का राह दिखाकर
भटके को
इंसान बना देती है।
बहुत सुंदर।
आभार सादर
Deleteहैसियत से अधिक
ReplyDeleteदिखने वाले इंसान को
कर्ज़ में डूबा देती है।
ज़्यादा पश्चिम-पश्चिम
करने वाले का
सूर्य अस्त भी करा देती है।
वाह!सत्य वचन
आभार सादर
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteआभार सादर
ReplyDeleteमेरी लिखी रचना को "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" साझा
ReplyDeleteकरने हेतु आभार।
सादर।
शुभ हो दीपोत्सव सभी के लिये मंगलकामनाएं।
ReplyDeleteआपको भी अशेष शुभकामनाएँ माननीय
Delete
ReplyDeleteदीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं सभी को ।लाजवाब रचना - - नमन सह।
आभार
Deleteआपको भी अशेष शुभकामनाएँ माननीय
ज़्यादा पश्चिम-पश्चिम
ReplyDeleteकरने वाले का
सूर्य अस्त भी करा देती है।
ये नाज़ुक दौर भी न
नाज़ुक को
फ़ौलाद बना देती है।
–सच्ची भावाभिव्यक्ति
–दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ
आभार
ReplyDeleteआपको भी अशेष शुभकामनाएँ दी
बहुत सुन्दर लेखन
ReplyDeleteहार्दिक आभार माननीय।
ReplyDeleteसादर।
हार्दिक आभार माननीय।
ReplyDeleteसादर।