Tuesday 22 December 2020

यह वक़्त का ही खेल है कि जिसने परखना और समझना सीखा दिया...

अपने  जैसा ढूंढते-ढूंढते 
जमाना निकल गया 
कुछ अपने 
पराए बन गए 
कुछ पराए 
अपने ।

यह वक्त का ही खेल है 
कि जिसने
परखना और समझना 
सीखा दिया।
परखा तो 
कोई 
अपना ना दिखा 
और...
समझा तो 
कोई पराया ना दिखा।

बस ज़िंदगी ने 
यही सिखाया है कि 
जबरन की डोर 
ना बांधे चलो।
कदर ना हो तो 
चुपचाप 
दूरी बना लो 
और निकल चलो 
अपने मुकाम पर।

।।सधु चन्द्र।। 


21 comments:

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    1. हार्दिक आभार दी।
      सादर।

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  2. बहुत खूब ...
    अपना पराया शायद मन के अन्दर है ... भाव बदलते ही बदल जाते हैं भाव ...

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    1. हार्दिक आभार माननीय।
      सादर।

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  3. Replies
    1. हार्दिक आभार माननीय।
      सादर।

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  4. मेरी रचना को चर्चा मंच पर शामिल करने हेतु हार्दिक आभार माननीय।
    सादर।

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  5. हार्दिक आभार ज्योति जी।
    सादर।

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  6. बहुत सार्थक सृजन।
    स्तरीय का दर्शन ‌

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  7. सुंदर अभिव्यक्ति

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    1. हार्दिक आभार सु-मन जी।
      सादर।

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  8. बहुत सुंदर सृजन।

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    1. हार्दिक आभार अनीता जी।
      सादर।

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  9. Replies
    1. हार्दिक आभार माननीय।
      सादर।

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  10. अपने जैसा ढूंढते-ढूंढते
    जमाना निकल गया
    कुछ अपने
    पराए बन गए
    कुछ पराए
    अपने ।

    वाह!

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    1. उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार माननीय।
      सादर।

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