कभी आंखो के भीतर से
झांकते,
इधर-उधर
कभी अभ्यासरत
ढुलक जाते
आंखों की कोरों से
जिन्हें सहेज
अंक में ले
वापस भरने वाला
समर्थवान
कोई नहीं।
कभी ये सपने
शून्य में जागते
धैर्य के साथ
इंतजार में
वापस होने के लिए ।
अपने प्रस्ताव की
किलकारियों
अठखेलियों को
गति में देखने के लिए
उस सुखद एहसास को
जो...
भाप बनकर उड़ गए
आकाश में
और बन गए बादल ।
आज वह बादल
उमड़ घुमड़ रहे
सिर के ऊपर
आकाश में...
मन होता कि भीग जाए
उस बारिश में ...
जो मेरी सौजन्य से
ऊपर तक बादलों का ढेर बना पाए हैं ।
और जिसे
निरंतरता देने में
अभ्यासरत रही...!
पता है कि ये
कुछ आस-पास छटकेंगे
पर...
कुछ तो कभी बरसेंगे...!
और तृप्त करेंगे सपने को।
इसी चाह में
यह चातक मन
उसे अपलक देख रहा है।।
।।सधु चन्द्र।।
ReplyDeleteपता है कि ये
कुछ आस-पास छटकेंगे
पर...
कुछ तो कभी बरसेंगे...!
और तृप्त करेंगे सपने को।
इसी चाह में
यह चातक मन
उसे अपलक देख रहा है।..बहुत सुन्दर, खूबसूरत अहसासों भरी कृति..
हार्दिक आभार जिज्ञासा जी।
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
Deleteसादर।
पता है कि ये
ReplyDeleteकुछ आस-पास छटकेंगे
पर...
कुछ तो कभी बरसेंगे...!
और तृप्त करेंगे सपने को।
.... आशा के पवन झकोरे ले आती इक सुंदर रचना। आपकी अनुपस्थिति अनायास ही खल रही थी। इस रचना ने पुनः आपसे रूबरू करवाया। शुक्रिया व शुभकामनाएँ आदरणीया सधु जी।
उत्साहवर्धन हेतु हृदयतल से आभार माननीय।
ReplyDeleteसादर।
वाह!!!!
ReplyDeleteउत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार माननीय।
Deleteसादर।