Tuesday, 13 October 2020

तुम मूकदर्शक,मैं कामिनी

तुम मूकदर्शक,मैं कामिनी

तुम मूकदर्शक,मैं कामिनी
हृदय  उद्वेलक, हूँ दामिनी
तुम उज्जवल छटा,मैं कांति
दिव्यर्शन से ही आती शांति
न हिय ने पाई यह भ्रान्ति ।

तुम प्रेम हो, मैं रागिनी
तेरे सुर की हूँ मैं वादिनी।

तुम शीश हो,मैं हृदयस्थल
हृदय तार कंपित
क्षण-क्षण, पल-पल।

जीवन में ऐसे आए हो 
मानो...सोमरस से, छाए हो।

तुम चलते हो यूँ डेंग-डेंग
पग-पग तो मेरे छोटे हैं
वह क्षण जीवन में आते
जो वृन्दावनवासी  खोते हैं।

तुम निद्रा हो,मैं स्वप्न निराली
है निज सुगन्ध खुद पे भारी
यूँ कल-कल करती आयी हूँ
जीवन में तेरे छाई हूँ.... ।।

।।सधु।।

7 comments:

  1. व्वाहहहहह
    बेहतरीन..
    सादर

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  2. सुंदर कविता 👌👌

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  3. बढ़िया हो गया..
    शुभकामनाएँ

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  4. तुम चलते हो यूँ डेंग-डेंग
    पग-पग तो मेरे छोटे हैं
    वह क्षण जीवन में आते
    जो वृन्दावनवासी खोते हैं।

    तुम निद्रा हो,मैं स्वप्न निराली
    है निज सुगन्ध खुद पे भारी
    यूँ कल-कल करती आयी हूँ
    जीवन में तेरे छाई हूँ.... ।।

    वाह!

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