तुम मूकदर्शक,मैं कामिनी
तुम मूकदर्शक,मैं कामिनी
हृदय उद्वेलक, हूँ दामिनी
तुम उज्जवल छटा,मैं कांति
दिव्यर्शन से ही आती शांति
न हिय ने पाई यह भ्रान्ति ।
तुम प्रेम हो, मैं रागिनी
तेरे सुर की हूँ मैं वादिनी।
तुम शीश हो,मैं हृदयस्थल
हृदय तार कंपित
क्षण-क्षण, पल-पल।
जीवन में ऐसे आए हो
मानो...सोमरस से, छाए हो।
तुम चलते हो यूँ डेंग-डेंग
पग-पग तो मेरे छोटे हैं
वह क्षण जीवन में आते
जो वृन्दावनवासी खोते हैं।
तुम निद्रा हो,मैं स्वप्न निराली
है निज सुगन्ध खुद पे भारी
यूँ कल-कल करती आयी हूँ
जीवन में तेरे छाई हूँ.... ।।
।।सधु।।
व्वाहहहहह
ReplyDeleteबेहतरीन..
सादर
सुंदर कविता 👌👌
ReplyDeleteआभार
Deleteबढ़िया हो गया..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ
आभार
ReplyDeleteतुम चलते हो यूँ डेंग-डेंग
ReplyDeleteपग-पग तो मेरे छोटे हैं
वह क्षण जीवन में आते
जो वृन्दावनवासी खोते हैं।
तुम निद्रा हो,मैं स्वप्न निराली
है निज सुगन्ध खुद पे भारी
यूँ कल-कल करती आयी हूँ
जीवन में तेरे छाई हूँ.... ।।
वाह!
आभार
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