पर,
मैं हँस कर दूर हो गई...।
सागर की लहरें तेज थी
स्तब्ध शरीर शांत था ।
पैरों तले रेत खिसकती
सीने में उठता तूफान था ।
एड़िया जमाई खड़ी रही
सब कुछ ना इतना आसान था!!!
बस!
कुछ ऊपर वाले
और कुछ उनके बंदे के ऊपर छोड़ दिया।।
।।सधु चन्द्र।।
मानव नव रसों की खान है। उसकी सोच से उत्पन्न उसकी प्रतिक्रिया ही यह निर्धारित करती है कि उसका व्यक्तित्व कैसा है ! निश्चय ही मेरी रचनाओं में आपको नवीन एवं पुरातन का समावेश मिलेगा साथ ही क्रान्तिकारी विचारधारा के छींटे भी । धन्यवाद ! ।।सधु चन्द्र।।
राम एक नाम नहीं जीवन का सोपान हैं। दीपावली के टिमटिमाते तारे वाल्मिकी-तुलसी के वरदान हैं। राम है शीतल धारा गंगा की पवित्र पर...
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०३-०९-२०२१) को
'खेत मेरे! लहलहाना धान से भरपूर तुम'(चर्चा अंक- ४१७७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 04 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteपैरों तले रेत खिसकती
ReplyDeleteसीने में उठता तूफान था ।
एड़िया जमाई खड़ी रही
सब कुछ ना इतना आसान था!!!---गहन रचना।
आपकी बात सरल भी है तथा एक दूसरे कोण देखा जाए तो गूढ़ अर्थ भी समाहित है इसमें। अंत में जो संदेश है, वह सभी संघर्षरत व्यक्तियों के लिए है। गागर में सागर सरीखी रचना हेतु अभिनंदन आपका सधु जी।
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