ख़ुद में ख़ुद को तलाशने की प्यास है
निरंतर अनुनादरत
अंतस प्रतीक्षारत
अनुनय-विनय के
शब्दजाल में
कहीं भटक गए हैं।
मंजिल को पाते-पाते
हम ख़ुद ही खो गए ।।
गुम हुए इस कदर कि
खोज में लगे हैं
अब तक।
पुरातत्ववेत्ताओं ने
क्या-क्या खोज निकाला ...
भूभाग के अतीत पर
वर्तमान लिख डाला।
कोई तो खोजे मुझे...
मुझे ...
ख़ुद की तलाश है ।
एक परत चढ़ी है
धूल की
विस्तार पर...
विरासत को विस्तार तक
पहुँचाना ही खास है ।
धुंधली ज़मी
लदी अस्तित्व(धूल) से
धूल में नहा कर ।
धूल, धूलि, गोधुलि में
धवल करने आस है ।
मुझे ख़ुद में ख़ुद को
तलाशने की प्यास है।
।।सधु चन्द्र।।
अनुपम अभीप्सा जगी है मन में
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना ।
ReplyDeleteजिसने खुद को समझ लिया, पा लिया, वह तो देवत्व को प्राप्त हो गया
ReplyDeleteएक परत चढ़ी है
ReplyDeleteधूल की
विस्तार पर...
विरासत को विस्तार तक
पहुँचाना ही खास है ।---बहुत गहन रचना है।
वाह! सार्थक प्रयास है, इसे तृप्त कर लें तो जीवन भी तृप्त हो जाता है।
ReplyDeleteवैसे कई दफा ये जद्दोजहद चलती है पर कितना खोज पाते हैं पता नहीं , बुद्ध बनने की प्रतिबद्धता तक का सफर है ये।
बहुत सुंदर गहन भाव रचना।
हार्दिक आभार कामिनी जी ।
ReplyDeleteसादर।
मुझे ख़ुद में ख़ुद को
ReplyDeleteतलाशने की प्यास है।---और यही प्यास आपको उत्कृष्टता प्रदान करती है सधु जी
आपकी यह रचना मेरे मन मे उतर गयी।
ReplyDeleteअनुनय-विनय के
ReplyDeleteशब्दजाल में
कहीं भटक गए हैं।
मंजिल को पाते-पाते
हम ख़ुद ही खो गए ।। बहुत सुन्दर |